Lekhika Ranchi

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मुंशी प्रेमचंद ः सेवा सदन


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फागुन में सुमन का विवाह हो गया। गंगाजली दामाद को देखकर बहुत रोई। उसे ऐसा दुःख हुआ, मानो किसी ने सुमन को कुएं में डाल दिया।

सुमन ससुराल आई तो यहां की अवस्था उससे भी बुरी पाई, जिसकी उसने कल्पना की थी। मकान में केवल दो कोठरियां थी और एक सायबान। दीवारों में चारों ओर लोनी लगी थी। बाहर से नालियों की दुर्गंध आती रहती थी। धूप और प्रकाश का कहीं गुजर नहीं। इस घर का किराया तीन रुपये महीना देना पड़ता था।

सुमन के दो महीने आराम से कटे। गजाधर की एक बूढ़ी फूआ घर का सारा काम-काज करती थी। लेकिन गर्मियों में शहर में हैजा फैला और बुढ़िया चल बसी। अब वह बड़े फेर में पड़ी। चौका-बर्तन करने के लिए महरियां तीन रुपये से कम पर राजी न होती थीं। दो दिन घर में चूल्हा नहीं जला। गजाधर सुमन से कुछ न कह सकता था। दोनों दिन बाजार से पूरियां लाया। वह सुमन को प्रसन्न रखना चाहता था। उसके रूप-लावण्य पर मुग्ध हो गया था। तीसरे दिन वह घड़ी रात रहे उठा और सारे बर्तन मांज डाले, चौका लगा दिया, नल से पानी भर लाया। सुमन जब सोकर उठी, तो यह कौतुक देखकर दंग रह गई। समझ गई कि इन्होंने सारा काम किया। लज्जा के मारे उसने कुछ न पूछा। संध्या को उसने आप ही सारा काम किया। बर्तन मांजती थी और रोती जाती थी।

पर थोड़े ही दिनों में उसे इन कामों की आदत पड़ गई। उसे अपने जीवन में आनंद-सा अनुभव होने लगा। गजाधर को ऐसा मालूम होता था, मानो जग जीत लिया है। अपने मित्रों से सुमन की प्रशंसा करता फिरता। स्त्री नहीं है, देवी है। इतने बड़े घर की लड़की, घर का छोटे-से-छोटा काम भी अपने हाथ से करती है। भोजन तो ऐसा बनाती है कि दाल-रोटी में पकवान का स्वाद आ जाता है। दूसरे महीने में वह वेतन पाया, तो सबका-सब सुमन के हाथों में रख दिया। जिंदगी में आज स्वच्छंदता का आनंद प्राप्त हुआ। अब उसे एक-एक पैसे के लिए किसी के सामने हाथ न फैलाना पड़ेगा। वह इन रुपयों को जैसे चाहे, खर्च कर सकती है। जो चाहे खा-पी सकती है।

पर गृह-प्रबंध में कुशल न होने के कारण वह आवश्यक और अनावश्यक खर्च का ज्ञान न रखती थी। परिणाम यह हुआ कि महीने में दस दिन बाकी थे कि सुमन ने सब रुपए खर्च कर डाले थे। उसने गृहिणी बनने की नहीं, इंद्रियों के आनंद-भोग की शिक्षा पाई थी। गजाधर ने यह सुना, तो सन्नाटे मंक आ गया। अब महीना कैसे कटेगा? उसके सिर पर एक पहाड़-सा टूट पड़ा। इसकी शंका उसे कुछ पहले ही हो रही थी। सुमन से कुछ न बोला, पर सारे दिन उस पर चिंता सवार रही, अब बीच में रुपए कहां से आएं?

गजाधर ने सुमन को घर की स्वामिनी बना तो दिया था, पर वह स्वभाव से कृपण था। जलपान की जलेबियां उसे विष के सामान लगती थीं। दाल में घी देखकर उसके हृदय में शूल होने लगता। वह भोजन करता तो बटुली की ओर देखता कि कहीं अधिक तो नहीं बना है। दरवाजे पर दाल-चावल फेंका देखकर शरीर में ज्वाला-सी लग जाती थी, पर सुमन की मोहिनी सूरत ने उसे वशीभूत कर लिया था। मुंह से कुछ न कह सकता।

पर आज जब कई आदमियों से उधार मांगने पर रुपए न मिले, तो वह अधीर हो गया। घर में आकर बोला– रुपए तो तुमने खर्च कर दिए, अब बताओ, कहां से आएं?

सुमन– मैंने कुछ उड़ा तो नहीं दिए।

गजाधर– उड़ाए नहीं, पर यह तो मालूम था कि इसी में महीने भर चलाना है। उसी हिसाब से खर्च करना था।

सुमन– उतने रुपयों में बरकत थोड़े ही हो जाएगी।

गजाधर– तो मैं डाका तो नहीं मार सकता।

बातों-बातों में झगड़ा हो गया। गजाधर ने कुछ कठोर बातें कहीं। अंत में सुमन ने अपनी हंसुली गिरवी रखने को दी और गजाधर भुनभुनाता हुआ लेकर चला गया।

लेकिन सुमन का जीवन सुख में कटा था। उसे अच्छा खाने, अच्छा पहनने की आदत थी। अपने द्वार पर खोमचेवालों की आवाज सुनकर उससे रहा न जाता। अब तक वह गजाधर को भी खिलाती थी। अब से अकेली ही खा जाती। जिह्वा-रस भोगने के लिए पति से कपट करने लगी।

धीरे-धीरे सुमन के सौंदर्य की चर्चा मुहल्ले में फैली। पास-पड़ोस की स्त्रियां आने लगीं। सुमन उन्हें नीच दृष्टि से देखती, उनसे खुलकर न मिलती। पर उसके रीति-व्यवहार में वह गुण था, जो ऊंचे कुलों में स्वाभाविक होता है। पड़ोसियों ने शीघ्र ही उसका आधिपत्य स्वीकार कर लिया। सुमन उनके बीच में रानी मालूम होती थी। उसकी सगर्वा प्रकृति को इसमें अत्यंत आनंद प्राप्त होता था। वह उन स्त्रियों के सामने अपने गुणों को बढ़ाकर दिखाती। वे अपने भाग्य को रोतीं, सुमन अपने भाग्य सराहती। वे किसी की निंदा करतीं, तो सुमन उन्हें समझाती। वह उसके सामने रेशमी साड़ी पहनकर बैठती, जो वह मैके से लाई थी। रेशमी जाकट खूंटी पर लटका दी। उन पर इस प्रदर्शन का प्रभाव सुमन की बातचीत से कहीं अधिक होता था। वे आभूषण के विषय में उसकी सम्मति को बड़ा महत्त्व देतीं। नए गहने बनवातीं तो सुमन से सलाह लेतीं, साड़ियां लेतीं तो पहले सुमन को अवश्य दिखा लेतीं। सुमन गौर से उन्हें निष्काम भाव से सलाह देती, पर उससे मन में बड़ा दुःख होता। वह सोचती, यह सब नए-नए गहने बनवाती हैं, नए-नए कपड़े लेती हैं और यहां रोटियों के लाले हैं। क्या संसार में मैं ही सबसे अभागिन हूं? उसने अपने घर यही सीखा था कि मनुष्य को जीवन में सुख-भोग करना चाहिए। उसने कभी वह धर्म-चर्चा न सुनी थी, वह धर्म-शिक्षा न पाई थी, जो मन में संतोष का बीजारोपण करती है। उसका हृदय असंतोष से व्याकुल रहने लगा।

गजाधर इन दिनों बड़ी मेहनत करता। कारखाने से लौटते ही एक दूसरी दुकान पर हिसाब-किताब लिखने चला जाता था। वहां से आठ बजे रात को लौटता। इस काम के लिए उसे पांच रुपए और मिलते थे। पर उसे अपनी आर्थिक दशा में कोई अंतर न दिखाई देता था। उसकी सारी कमाई खाने-पीने में उड़ जाती थी। उसका संचयशील हृदय इस ‘खा-पी बराबर’ दशा से बहुत दुःखी रहता था। उस पर सुमन उसके सामने अपने फूटे कर्म का रोना रो-रोकर उसे और भी हताश कर देती थी। उसे स्पष्ट दिखाई देता था कि सुमन का हृदय मेरी ओर से शिथिल होता जाता है। उसे यह न मालूम था कि सुमन मेरी प्रेम-रसपूर्ण बातों से मिठाई के दोनों को अधिक आनंदप्रद समझती है। अतएव वह अपने प्रेम और परिश्रम से फल न पाकर, उसे अपने शासनाधिकार से प्राप्त करने की चेष्टा करने लगा। इस प्रकार रस्सी में दोनों ओर से तनाव होने लगा।

हमारा चरित्र कितना ही दृढ़ हो, पर उस पर संगति का असर अवश्य होता है। सुमन अपने पड़ोसियों को जितनी शिक्षा देती थी, उससे अधिक उनसे ग्रहण करती थी। हम अपने गार्हस्थ्य जीवन की ओर से कितने बेसुध हैं, उसके लिए किसी तैयारी, किसी शिक्षा की जरूरत नहीं समझते। गुड़िया खेलनेवाली बालिका, सहेलियों के साथ विहार करनेवाली युवती, गृहिणी बनने के योग्य समझी जाती है। अल्हड़ बछड़े के कंधे पर भारी जुआ रख दिया जाता है। ऐसी दशा में यदि हमारा गार्हस्थ जीवन आनंदमय न हो, तो कोई आश्चर्य नहीं। जिन महिलाओं के साथ सुमन उठती-बैठती थी, वे अपने पतियों को इंद्रियसुख का यंत्र समझती थीं। पति, चाहे जैसे हो, अपनी स्त्री को सुंदर आभूषणों से, उत्तम वस्त्रों से सजाए, उसे स्वादिष्ट पदार्थ खिलाए। यदि उसमें वह सामर्थ्य नहीं है तो वह निखट्टू है, अपाहिज है, उसे विवाह करने का कोई अधिकार नहीं था, वह आदर और प्रेम के योग्य नहीं। सुमन ने भी यही शिक्षा प्राप्त की और गजाधरप्रसाद जब कभी उसके किसी काम से नाराज होते, तो उन्हें पुरुषों के कर्त्तव्य पर एक लंबा उपदेश सुनना पड़ता था।

उस मुहल्ले में रसिक युवकों तथा शोहदों की भी कमी न थी। स्कूल से आते हुए युवक सामने के द्वार की ओर टकटकी लगाते हुए चले जाते। शोहदे उधर से निकलते तो राधा और कान्हा के गीत गाने लगते। सुमन कोई काम भी करती हो, पर उन्हें चिक की आड़ से एक झलक दिखा देती। उसके चंचल हृदय को इस ताक-झांक में असीम आनंद प्राप्त होता था। किसी कुवासना से नहीं, केवल अपने यौवन की छटा दिखाने के लिए केवल दूसरों के हृदय पर विजय पाने के लिए वह यह खेल खेलती थी।

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